दैनिक जागरण के ‘साहित्यिक पुनर्नवा’ में प्रकाशित ‘साहिर लुधियानवी : मेरे
गीत तुम्हारे’ की
समीक्षा
ख़यालात और अहसासात के
अक़्स
दिनेश कुकरेती | दैनिक जागरण | मई 13,
2017
मशहूर अदाकारा नरगिस एक जगह
लिखती हैं, “फिल्मी गीतकारों में साहिर का दर्जा बहुत बुलंद है। उनके शेर सुनकर
यूं लगता है, जैसे
कि वो शायर के दिल की आवाज और उनकी जाती जिंदगी के गहरे जज्बाती तजुर्बों का इजहार
हों। मुझे कुछ दूसरे शायरों की रचनाएं भी पसंद हैं, लेकिन साहिर की नज्में सीधे
दिल को छूती हैं। साहिर के शेर आम लोगों की जुबान पर चढ़ जाते हैं, क्योंकि वो सुख-दुख की बात
करते हैं और आम आदमी ये महसूस करता है कि ये शेर उसके ख़यालात और अहसासात के अक्स
हैं|”
यकीनन जिसने साहिर को जाना
है और समझा है, उसके
उनके बारे में ऐसे ही ख़यालात होंगे। खुद साहिर कहते हैं, “मेरा सदैव यह प्रयास रहा कि
यथासंभव फिल्मी गीतों को सृजनात्मक काव्य के निकट ला सकूं और इस प्रकार नए सामाजिक
एवं राजनीतिक दृष्टिकोण को जनसाधारण तक पहुंचा सकूं|” और..सच ये है कि साहिर के
इसी दृष्टिकोण ने भारतीय समाज को न सिर्फ दिशा दी, बल्कि उसे अपनी दशा को
बदलने के लिए उद्वेलित भी किया। अफसोस कि नई पीढ़ी साहिर के बारे में सामान्य
जानकारी भी नहीं रखती। ऐसे में सुनील भट्ट का उन्हें समाज के दबे-कुचले वर्ग के प्रतिनिधि
के रूप में जनमानस के बीच लाना नि:संदेह स्तुत्य प्रयास है।
सुनील बीते पांच साल से
हिंदुस्तान के अजीम शायर एवं मशहूर गीतकार साहिर लुधियानवी के गीतों व उनसे जुड़ी
अन्य जानकारियों को सामने लाने का काम कर रहे हैं, जिसकी परिणति है उनकी
हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘साहिर
लुधियानवी : मेरे गीत तुम्हारे’ । इसमें साहिर के गीतों के बहाने उस छटपटाहट को महसूस करने
की कोशिश की गई है, जो
शोषित-पीड़ित समाज के प्रति साहिर के मन में थी। उन्होंने अपने गीतों के जरिए न
सिर्फ सामाजिक बुराइयों पर चोट की, बल्कि मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों, मुल्क के हालात व उसके
भविष्य की रूपरेखा, धार्मिक
सौहार्द, स्त्रियों
की स्थिति, वक्त
की ताकत, प्रेम
की अवधारणा जैसे कई जटिल विषयों पर भी अपने विचार रखे। साहिर के अलावा शायद ही
किसी गीतकार का फलक इतना व्यापक रहा हो।
साहिर उस समाज की खिलाफत तो
करते थे, जो
इन्सानों में बेबसी के भाव को आने देता है, पर वे यह भी समझते थे कि
समाज में इच्छित बदलाव आने में वक्त लगता है। कई बार तो यह बदलाव आने भी नहीं
पाता। बावजूद इसके हम अपने सोचने के तरीके में बदलाव करके इस बेबसी से लड़ सकते
हैं। वो कहते हैं, “तेरे गिरने में भी तेरी हार नहीं, कि तू आदमी है अवतार नहीं” और “जहां में ऐसा कौन है कि
जिसको गम मिला नहीं|”
अपने गीतों की तरह साहिर ने
फिल्मों में गजलों व नज्मों का इस्तेमाल भी सामाजिक, दार्शनिक संदेश देने के लिए
किया। मसलन, फिल्म
‘हम दोनों’ में वो कहते हैं, “मैं जिंदगी का साथ निभाता
चला गया, हर
फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया|” लेकिन, दुनिया जहान की फिक्र साहिर
हमेशा करते रहे। वो तो हम हैं, जो उन्हें समझ ही नहीं पाए। सुनील इस बात को जानते हैं, इसीलिए वो साहिर को हमारे
करीब लेकर आए।
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