May 03, 2011

साहिर के गीतों के संकलन 'गाता जाये बंजारा' में उनकी स्वरचित भूमिका - Preface of 'Gata Jaye Banjara', a collection of Sahir's songs

फिल्म हमारे युग का सबसे प्रभावकारी तथा उपयोगी माध्यम है जिसे अगर रचनात्मक तथा प्रचारात्मक दृष्टीकोण से अपनाया जाये तो जनता के जीवन स्तर और सामाजिक प्रगति की रफ़्तार को बहुत तेज किया जा सकता है। दुर्भाग्य से हमारे यहाँ अभी तक फिल्म के इस पहलू की ओर पूरा ध्यान नहीं दिया गया, क्योंकि यह दायित्व अभी तक प्रायः ऐसे लोगों के हाथ में है जो निजी लाभ को सामाजिक दायित्व से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। इसलिए हमारी फ़िल्मी कहानियों, फ़िल्मी धुनों और फ़िल्मी गीतों का स्तर प्रायः निम्न होता है और शायद इसलिये साहित्यिक क्षेत्र में फ़िल्मी साहित्य को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है ।

मैं उनके इस रवैये पर आपत्ति नहीं करता - बल्कि सच पूछा जाये तो उनकी कई बातों से मैं स्वयं भी सहमत हूँ। किन्तु कुछ आपत्तियां ऐसी हैं जो या तो उनके बढते हुए कट्टरपन की उत्पत्ति है या फिर किसी अज्ञानता के कारण । इस प्रकार की आलोचना से न पाठक या दर्शक को ही कोई लाभ पहुँचता है और न किसी गीतकार को ।

मेरा सम्बन्ध चूंकि फिल्म और साहित्य दोनों से है अतः मैं अपने साहित्यकार सहयोगियों की सूचना के लिए यहाँ कुछ बातें कहना आवश्यक समझता हूँ ।

फ़िल्मी गीतकार को वह स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होती जो एक साहित्यिक कवि को मिलती है। गीतकार को हर स्थिति में ड्रामे की सीमा से प्रभावित रहना पड़ता है और पात्रों के मानसिक स्तर के अनुसार शब्दों और विचारों का चुनाव करना पड़ता है - बिलकुल इस प्रकार जैसे एक संवाद लेखक को एक ही ड्रामे में नास्तिक और आस्तिक, मालिक और नौकर, शरीफ और बदमाश - सभी प्रकार के पात्रों का प्रतिनिधित्व करना पड़ता है । इसी प्रकार गीतकार के लिए भी आवश्यक होता है कि वह पात्रों और कथानक के अनुरूप सभी प्रकार के विचारों और भावनाओं को एक जैसी दृढ़ता के साथ प्रकट करे ।

यह बात साहित्यिक शायरी से भिन्न भी है और कठिन भी है। अतः समालोचक के लिए यह आवश्यक है कि जब वह फ़िल्मी गीतों की समालोचना करें तो केवल यही न देखें कि अमुक गीत किस कवि ने लिखा है बल्कि इस बात को भी ध्यान में रखें कि वह किस पात्र के लिए लिखा गया । इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना भी आवश्यक है फ़िल्मी गीत प्रायः बनी-बनाई धुनों पर लिखे जाते हैं । हमारे यहाँ क्योंकि अभी तक संगीत का 'कापी राइट' नहीं है इसलिए फ़िल्मी संगीत में विदेशी धुनों का प्रयोग पर्याप्त किया जाता है । इसका निश्चित परिणाम यह होता है कि कवि को कई बार कविता की प्रचिलित छंद रीतियों से हटना पड़ता है और कई बार शाब्दिक मूल्यों को भूलकर ध्वनि अनुकूलता पर संतोष करना पड़ता है ।

शब्दों के चुनाव में भी उसे इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि देश के दूरस्थ अंचलों में बसने वाले लोग, जिनमें प्रायः अनपढ़ लोगों की संख्या अधिक होती है और जिनकी भाषा उर्दू या हिंदी नहीं है, भी उन गीतों के अर्थ समझ सकें ।

स्पष्ट है इन बंधनों के कारन जो काव्य-साहित्य लिखा जायेगा वह कला की उन ऊंचाईयों को स्पर्श नहीं कर सकेगा, जो अच्छे साहित्य का भाग है । फिर भी इस माध्यम के महत्व और आवश्यकता को भुलाया नहीं जा सकता । इसका अपना क्षेत्र है जो पुस्तकों, पत्रिकाओं, रेडियो और नाटक से अधिक बड़ा है और इसके द्वारा हम अपनी बात कम-से-कम समय में अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुंचा सकते है ।

मेरा सदैव प्रयास रहा है कि यथा संभव फ़िल्मी गीतों को सृजनात्मक काव्य के निकट ला सकूँ और इस प्रकार नए सामाजिक और राजनैतिक दृष्टिकोण को जन-साधारण तक पहुँचा सकूँ ।


[ Gata Jaye Banjara   page 7-8;  Edition-1993;  Publisher: Hindi Book Centre, Asaf Ali Road, New Delhi-110002;  Courtsey - Publisher ]

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