कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए
तू अबसे पहले सितारों में बस रही थी कहीं
तू अबसे पहले सितारों में बस रही थी कहीं
तुझे ज़मीं पे बुलाया गया है मेरे लिए |
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि ये बदन, ये निगाहें मेरी अमानत हैं
ये गेसुओं की घनी छाँव है मेरी खातिर
ये होंठ और ये बाहें मेरी अमानत हैं |
ये गेसुओं की घनी छाँव है मेरी खातिर
ये होंठ और ये बाहें मेरी अमानत हैं |
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि जैसे बजती है शहनाइयाँ सी राहों में
सुहागरात है घूंघट उठा रहा हूँ मैं
सिमट रही है तू शरमा अपनी बाहों में |
सुहागरात है घूंघट उठा रहा हूँ मैं
सिमट रही है तू शरमा अपनी बाहों में |
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूँ ही
उठेगी मेरी तरफ प्यार की नज़र यूँ ही
मैं जानता हूँ कि तू गैर है मगर यूँ ही
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है |
मैं जानता हूँ कि तू गैर है मगर यूँ ही
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है |
[आखिरी लाइन में "यूँ ही" का अर्थ शुरू की दो लाइनों से अलग है. पहले तो साहिर इसका इस्तेमाल अपने ख़ूबसूरत हालात(ख़यालात) की निरंतरता के लिए करते हैं, परन्तु फिर उनकी हकीकत उन पर तारी हो जाती है . वो ख्यालों की दुनिया से वापस आ जाते है और इन ख्यालों की निरर्थकता के लिए वो एक बार फिर "यूँ ही" शब्द का इस्तेमाल करते हैं . "यूँ ही" शब्द का ये अद्भुत इस्तेमाल पढने, सुनने वाले पर एक जादू सा असर छोड़ता है, जो साहिर जैसों के बस का ही कमाल है]
[Composer : Khayyam; Singer : Mukesh, Lata; Producer/Director : Yash Chopra; Actor : Amitabh Bachchan, Sashi Kapoor, Rakhi]
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
ReplyDeleteके ज़िंदगी तिरी जुल्फों के नर्म सायों में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी जीस्त का मुकद्दर है
तेरी नज़र कि शुआयों में खो भी सकती थी
अजब ना था कि मैं बेगाना-ऐ-आलम रह कर
तिरी जमाल कि रानाइयों में खो रहता
तिरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आंखें
इन्हीं हसीन फसानों में महव हो रहता
पुकारती मुझे जब तल्खियां ज़माने की
तिरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहना सर और मैं
घनेरी ज़ुल्फ के साए में छुप के जी लेता
मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है
के तू नहीं, तिरा गम ,तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे कि आरजू भी नहीं
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रह गुजारों से
मुहीब साए मेरी सम्त बढ़ते आते हैं
हयात-ओ-मौत के पुरहौल खारज़ारों से
ना कोई जादा, ना मंजिल, ना रोशनी का सुराग
भटक रही है खलायों में जिंदगी मेरी
इन्हीं खलायों में रह जाऊंगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफस मगर यूंही
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है