साहित्यिक
पुनर्नवा, दैनिक जागरण में 9 मार्च, 2015 को प्रकाशित साहिर
लुधियानवी पर मेरा लेख
सन पचास व साठ
का दशक फिल्मी गीतों का सबसे बेहतरीन दौर माना जाता है | इसमें न सिर्फ संगीतकारों ने बल्कि गीतकारों ने भी अपना शानदार योगदान दिया | अगर देखा जाए, तो एक
अच्छी धुन को अमरता उसके शब्दों से मिलती है | हम एक गीत को उसकी धुन के कारण पसंद तो करते हैं, परंतु याद हमें वो उसके बोलों की वजह से होता है | ये साहिर लुधियानवी,
शैलेंद्र, शकील बदायूंनी, कैफी आज़मी, मजरूह, प्रदीप, नीरज जैसे दिग्गज गीतकारों के शब्दों का
जादू है, जो कल भी लोगों को अपने रंग में भिगोता था, और आज भी उसी तरह सराबोर करता है | इन
सभी गीतकारों ने कई लाजवाब गीत लिखे, पर
जिस प्रकार साहिर ने इन गीतों का साहित्यिक व सामाजिक स्तर बढ़ाया, उसका कोई सानी नहीं है | गुलजार कहते हैं - साहिर वो अकेले गीतकार हैं, जिनके गीत उनके बोल के दम पर सफल हुये, न कि किसी धुन या गायक, गायिका के दम पर |
हिन्दी सिनेमा के इतिहास में यह सिर्फ साहिर के साथ हुआ कि एक गीतकार अपने दम पर
सफल हो पाया हो |
साहिर की खासियत यह थी कि वो गीतों को कुछ
इस तरह से लिखते थे कि वो फिल्म की कहानी के साथ-साथ सामाजिक यथार्थ को भी
प्रतिबिम्बित करें | ‘प्यासा’ फिल्म का हीरो जब अपने मतलबपरस्त समाज से नाराज होता है, तो कहता है - ये महलों, ये तख्तों, ये
ताजों की दुनिया/ ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया/ये दौलत के भूखे रवाजों दुनिया / ये दुनिया अगर मिल भी जाए
तो क्या है | ‘साधना’ में
जब एक वेश्या पुरुषवादी समाज के दोहरे चरित्र को सामने लाती है, ‘औरत ने जनम दिया मर्दों को/ मर्दों ने उसे बाज़ार दिया/ जब
जी चाहा मचला कुचला/ जब जी चाहा धुत्कार दिया | ‘फिर सुबह होगी’ में
फुटपाथ पर रात गुजारता हीरो गाता है - चीनो अरब हमारा, हिन्दोस्तान हमारा/ रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा | ‘वक्त’ फिल्म
में एक पार्टी सिंगर गाती है - आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू/ जो भी है, बस यही इक पल है/ कर ले पूरी आरजू | ‘’धूल का फूल’ में एक अनाथ बच्चे को पालने वाला बूढ़ा गाता है - तू हिन्दू बनेगा, न मुसलमान बनेगा/ इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा | इन गीतों को सुनकर/ पढ़कर
साफ हो जाता है कि साहिर इनके सहारे सिर्फ फिल्म की कहानी ही नहीं, कुछ और भी कहना चाहते हैं | ये ‘कुछ और कहने’ की आदत है, जो साहिर को बाकी गीतकारों से अलग करती है |
उनका मानना था कि फिल्मों का दायरा काफी
विस्तृत होता है, इसलिए हम इसके माध्यम
से कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं | यही वो कारण है कि उन्होंने अपने गीतों के सहारे समाज के
हाशिये पर पड़े मजदूर, किसानों, गरीबों को आवाज दी | आज़ाद मुल्क की रूपरेखा,
महिलाओं की विषम परिस्थिति,
मनुष्यों में गैर-बराबरी की समस्या,
धार्मिक कट्टरपपन जैसे विषय उनके गीतों का हिस्सा रहे | उनकी खूबी यह थी कि ये सब काम उन्होंने फिल्म की कहानी के दायरे में रहकर
किया | उदाहरण के तौर पर जब ‘फिर सुबह होगी’ में नायक नायिका को ढाढस बंधाता है, तो
कहता है – इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा/ जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर
छलकेगा/ जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नगमें गाएगी /वो सुबह कभी तो आयेगी ..|” जब हम फिल्म देखते हैं, तो पाते हैं कि यह गीत फिल्म का अहम हिस्सा है, जबकि एक स्वतंत्र
गीत के रूप में भी इसे पढ़ा व सराहा जा सकता है |
साहिर के गीतों की एक अन्य विशेषता यह है कि
जब हम उन्हें पढ़ते हैं तो वो फिल्मी गीत की बजाय अदबी शायरी मालूम होते हैं | “जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात”, “रंग और नूर
की बारात किसे पेश करूँ”, “हम इंतज़ार करेंगे
तेरा कयामत तक/ खुदा करे कि कयामत हो और तू आए”, “पाँव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी”, “अभी न जाओ छोड़ कर, कि दिल अभी भरा नहीं” जैसी
नज़्में फिल्मी गीत कम और शायरी ज्यादा हैं
| ख्वाजा अहमद अब्बास के अनुसार फिल्मी गीतों
को साहित्यिक रंग देने का श्रेय साहिर को ही जाता है | उनके बाद कई गीतकारों ने ऐसा किया परंतु शुरुआत साहिर ने ही की |
साहिर साहित्यिक शायरी से फिल्मों में आए थे
| असल जिंदगी में वो पहले शायर बने, उसके बाद गीतकार | उनकी गज़लों, नज्मों का संकलन ‘तल्खियाँ’ महज
बाईस साल की उम्र में छप चुका था, जिसे
गालिब के दीवान के बाद उर्दू शायरी की सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक कहा जाता है | इसमें उनकी नज्म ‘ताजमहल’ भी
शामिल है, जिसमें उन्होंने ताजमहल को एक नयी रोशनी
में पेश कर हंगामा खड़ा कर दिया था - इक
शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर, हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक |
साहिर का जन्म
8 मार्च, 1921 को हुआ था | उनके पिता चौधरी फज़ल मुहम्मद लुधियाना के एक अमीर व विलासप्रिय जमींदार थे | उनकी माँ सरदार बेगम उनके पिता की ग्यारहवीं पत्नी थीं | चूंकि साहिर अपने पिता की इकलौती संतान थे, उनके बचपन के कुछ साल बड़े आराम से गुजरे | परंतु पिता की स्वछंदता से परेशान होकर माँ अलग हो गयी | बात इतनी बढ़ी कि पिता ने साहिर को जान से मरवाने की धमकी
दे डाली | माँ डर गयी और उन्होंने नन्हें साहिर पर
निगरानी रखवा दी | इस प्रकार उनका बचपन
कंगाली के साथ-साथ खौफ की भी भेंट चढ़ गया | माँ ने जैसे तैसे करके उन्हें पाला | इससे साहिर के मन में अपने पिता व उनकी सामंती व्यवस्था के प्रति एक गहरी
नाराजगी भर गई | कालेज में उनका प्रेम संबंध भी धर्म व समाज
की बंदिशों की भेंट रहा | इन
दोनों घटनाओं ने साहिर को इंसान की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का गहरा पक्षधर बना दिया
| सबसे पहले इंसान है, उसके बाद समाज, सरकार
और उनके बनाए नियम-कानून | हर वो
विचार, वो रस्मो-रिवाज जो इंसान की आज़ादी पर अंकुश
था, साहिर उसके खिलाफ हो गए | “धर्म और जात, नस्ल और मजहब/ जो भी
हो आदमी से कमतर है” उनका मूल सिद्धान्त बन गए | वो एक बागी शायर कहलाये, जिनका मानना था – अपना हक संगदिल (पत्थरदिल) जमाने से छीन पाओ, तो
कोई बात बने |
साहिर सांप्रदायिक सदभाव
के भी जबर्दस्त पैरोकार थे | इसका
कारण भी उनके व्यक्तिगत अनुभव थे | जिन
दिनों मुल्क आज़ाद हुआ, वो मुंबई में थे | उनकी माँ लुधियाना में थी और शहर के बाकी मुस्लिम परिवारों
की तरह वो भी पाकिस्तान चली गयीं | जब
साहिर को ये खबर मिली, तो वो उनकी तलाश में
दिल्ली होते हुये लाहौर पहुंचे | उस
दौरान उन्हें हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्मों के उग्रपंथियों का शिकार होना पड़ा था | दंगो के इन अनुभवों ने उन्हें जीवन भर के लिए धार्मिक
कट्टरता के खिलाफ कर दिया |
उन्होंने माना कि धर्म कोई भी हो, वो
इंसान और इंसानियत से बढ़कर नहीं हो सकता - हर मजहब से ऊंची है कीमत इंसानी जान की | साहिर सब धर्मों की साझेदारी के पक्षधर बन गए | उन्होंने अपने गीतों में धार्मिक एकता पर बल देती पंक्तियाँ रचीं – “काबे में रहो, या काशी में,
निस्बत(मतलब) तो उसी की जात से है/ तुम राम कहो या रहीम कहो, मतलब तो उसी की बात से है” (धर्मपुत्र), “राम रहीम कृष्ण
करीम, ईशु मसीह और इब्राहीम/ सबकी है इक ही तालीम(शिक्षा)” (मेहमान),
“कुरआन न हो जिसमें वो मंदिर नहीं तेरा/ गीता न हो जिसमें वो हरम तेरा नहीं है |” (धूल का फूल)
माँ के कारण
साहिर लाहौर चले तो गए, पर वो
साल भर भी वहाँ टिक न पाये | वहाँ उन्होंने
पाकिस्तानी सरकार के खिलाफ कुछ लेख लिखे, जिससे
उनकी गिरफ्तारी की नौबत आ गयी | यह
खबर मिलते ही वो वहाँ से निकल पड़े | ये
जून, 1948 की बात थी | इसके बाद साहिर वापस पाकिस्तान नहीं गए | एक गीतकार बनने का संकल्प लेकर वो मुंबई चल दिये | अब फिल्मी दुनिया ही उनका ठिकाना थी |
मुंबई के दूसरे
प्रवास में साहिर की पहली फिल्म थी – नौजवान(1951), जिसमें उनका लिखा गीत “ठंडी हवाएँ, लहरा के आए” खूब
पसंद किया गया | देवानंद की बाजी(1951) और जाल(1952)
के गीतों के हिट होने के बाद साहिर सफल गीतकार मान लिए गए | सन 1957 में आयी गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ साहिर के जीवन में एक अहम मुकाम साबित हुयी | इसके गीत हिट हुये और इसका पूरा श्रेय साहिर को मिला | इस फिल्म के बाद साहिर का आत्मविश्वास बढ़ गया | अब उन्होंने गीत लिखने से पहले दो शर्तें रखनी शुरू कीं | एक तो यह कि पहले वो गीत लिखेंगे फिर संगीतकार उसके आधार
पर अपनी धुन बनायेंगे | दूसरी
यह कि उन्हें संगीतकार से ज्यादा मेहनताना मिलेगा, चाहे वो एक रुपया ही ज्यादा क्यों न हो | उनका मानना था कि एक गीत को बनाने में गीतकार का संगीतकर से योगदान ज्यादा
होता है | उनकी इस जिद के कारण नौशाद और शंकर-जयकिशन
ने कभी उनके साथ काम नहीं किया | पर
साहिर ने भी इसकी परवाह नहीं की | उन्होंने
सिर्फ अपनी पसंद के संगीतकारों के साथ काम किया और ऐसे-ऐसे हिट गीत दिये कि लोग
उनका लोहा मान गए |
साहिर ने
फिल्मों में रोमांटिसिज़्म को भी नए मायने दिये | प्रकृति को प्रेम के साथ जोड़कर गीत रचने का काम उन्होंने ही शुरू किया | ‘जाल’ के
गीत “पेड़ों के शाखों पे सोई-सोई
चाँदनी/ और थोड़ी देर में थक के लौट
जाएगी” जैसी भाषा व भाव साहिर से पहले नहीं मिलते थे | साहिर ने कई लाजवाब प्रेम गीत भी रचे, जिनमें प्रमुख है-
जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा (ताजमहल), चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों (गुमराह), नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले (हमराज़), मिलती है जिंदगी में मुहब्बत कभी-कभी (आँखें) कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता
है (कभी-कभी) | साहिर
ने हालांकि कई खूबसूरत प्रेमगीत लिखे, पर
असल जिंदगी में वो प्रेम से महरूम ही रहे | यूं तो उनके प्रेम के कई किस्से हैं, जिनमें अमृता प्रीतम व सुधा मल्होत्रा का नाम भी आता है | पर ये प्रेम कभी परवान न चढ़ सके और साहिर पूरी उम्र अकेले
ही रहे | उनके जीवन का एकमात्र सहारा उनकी माँ थी, जो अंत तक उनके साथ रही |
साहिर आज हमारे बीच नहीं है, पर उनके लिखे गीत उनकी धरोहर के रूप में हम सबकी साझा
संपत्ति हैं | वो एक ऐसे गीतकार, शायर थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के सहारे एक नयी किस्म की सामाजिक सक्रियता को
जन्म दिया | अपनी रचनाओं में वो एक ऐसे दार्शनिक, भविष्यदृष्टा के रूप में नज़र आते हैं, जिसने हर इंसान के प्रति अपने प्रेम को महसूस किया और समाज
के दबे-कुचले वर्ग को आवाज दी | उनके
शब्दों में कहें तो – माना कि इस जमीं को न गुलज़ार कर सके/ कुछ खार तो कम कर गए, गुजरे जिधर से हम |