फ़िल्मी दुनिया में साहित्य से जुड़े कई सफल लोगों ने जोर
आजमाईश की, पर उन्हें वह
सफलता नहीं मिल पाई जो साहिर को नसीब
हुयी । इसका एक कारण तो यह था कि ये लोग फिल्म के फॉरमेट को ठीक से पकड़ नहीं पाए
। एक फिल्म लेखक या गीतकार को कई बंधनों में रहकर काम करना होता है । उसे
फिल्म की कहानी, पात्रों के परिवेश, नायक-नायिका की इमेज, प्रचलित गीत-संगीत, निर्माता-निर्देशक
की पसंद-नापसंद सबका ख्याल रखना होता है । जाहिर है, इतने बंधनों में रहकर
काम करना
काफी मुश्किल है । इसलिए कोई हैरानी यहीं कि जिन लोगों ने साहित्य के
क्षेत्र में नाम व शोहरत कमाई, वे मुंबई में चल नहीं पाए
और निराश होकर या मोहभंग करा कर वापस चले गए
। साहिर के मामले में ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने फ़िल्मी गीतों की इन
सीमाओं को पहचान लिया । उन्होंने इन बंधनों का रोना नहीं
रोया, बल्कि उसे स्वीकार कर
लिया । ये बंधन उनकी सीमा-रेखा बन गए । उन्होंने मान लिया कि अब जो भी खेल करना है, इसी में करना है । और उन्होंने खेल किया
और खूब किया
साहिर के कैरियर के पहले दौर की सफलता का बड़ा कारण उनकी धुनों
के हिसाब से गीत लिख पाने की क्षमता थी । धुन की रिदम से मिलते-जुलते शब्द चुनना
और उन्हें ऐसे वाक्यों में पिरोना कि एक निश्चित समय-सीमा में
फिट हो सकें, एक जटिल काम है । यह काम और भी मुश्किल हो जाता
है जब कोई गीतकार अच्छा गीत लिखने की तमन्ना रखता हो । अपने अहसास और विचारों की
गहराई को बनी-बनाई धुनों में बांधने का काम साहिर खूब
किया और बहुत खूबसूरती से किया । साहिर की इस काव्य
प्रतिभा के बारे में फ़िल्मी गीतकार व शायर जां निसार अख्तर कहते हैं, "अल्फ़ाज़ और जज़्बात की खूबसूरती गीतों के लिए बड़ी अहम है । जो धुन साहिर को 'सुन जा दिल की
दास्तां' के लिये दी गयी होगी, उस पर 'आ जा, आ जा बलमा' भी दिया जा
सकता था, लेकिन यहीं पर एक शायर और तुकबंद का फर्क सामने आता
है ।"
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