June 15, 2016

साहिर के गीतों को आधार बनाकर रची गई मेरी पुस्तक ‘साहिर लुधियानवी : मेरे गीत तुम्हारे’ के कुछ अंश

फ़िल्मी दुनिया में  साहित्य से जुड़े कई सफल लोगों ने जोर आजमाईश की, पर उन्हें वसफलता नहीं मिल पाजो साहिर को नसीब हुयी । इसका एक कारण तो यह था कि ये लोग फिल्म के फॉरमेट को ठीक से पकड़ नहीं पा। एक फिल्म लेखक या गीतकार को कई बंधनों में रहकर काम करना होता है । उसे फिल्म की  कहानी, पात्रों के परिवेश, नायक-नायिका की  इमेज, प्रचलित गीत-संगीत, निर्माता-निर्देशक की पसंद-नापसंद सबका ख्याल रखना होता है ।  जाहिर है,  इतने बंधनों में रहकर काम करना  काफी मुश्किल है । इसलिए कोई हैरानी यहीं कि जिन लोगों ने साहित्य के क्षेत्र में नाम व शोहरत कमाई, वे मुंबई में चल नहीं पाऔर निराश होकर या मोहभंग करा कर वापस चले ग। साहिर के मामले में ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने फ़िल्मी गीतों की इन सीमाओं को पहचान लिया । उन्होंने इन बंधनों का रोना नहीं रोया, बल्कि  उसे स्वीकार कर लिया । ये बंधन उनकी सीमा-रेखा बन गए । उन्होंने मान लिया कि अब जो भी खेल करना है,  इसी में करना है । और उन्होंने खेल किया और खूब किया 

साहिर के कैरियर के पहले दौर की सफलता का बड़ा कारण उनकी धुनों के हिसाब से गीत लिख पाने की क्षमता थी । धुन की रिदम से मिलते-जुलते शब्द चुनना और उन्हें ऐसे वाक्यों में पिरोना कि एक निश्चित समय-सीमा में फिट हो सकें, एक जटिल काम है । यह काम और भी मुश्किल हो जाता है जब कोई गीतकार अच्छा गीत लिखने की तमन्ना रखता हो । अपने अहसास और विचारों की गहराई को बनी-बनाई धुनों में बांधने का काम साहिर खूब किया और बहुत खूबसूरती से किया । साहिर की इस काव्य प्रतिभा के बारे में फ़िल्मी गीतकार व शायर जां निसार अख्तर कहते हैं, "अल्फ़ाज़ और जज़्बात की खूबसूरती गीतों के लिए बड़ी अहम है । जो धुन साहिर को 'सुन जा दिल की दास्तां' के लिये दी गयी होगी, उस पर 'आ जा, आ जा बलमा' भी दिया जा सकता था, लेकिन यहीं पर एक शायर और तुकबंद का फर्क सामने आता है ।" 

No comments:

Post a Comment